तुम अकेली तन्हा
कब तक यूहीं
साही और गलत
में फर्क समझने में
वक़्त गंवाती रहोगी ।
क्यूँ नहीं जो होता है
और जैसे भी होता है
उसे वैसे का वैसा
कबूल लो ।।
क्यूँ नहीं सामने आते हुए
चेहरों को
पड़ने और समझने की
कोशिश को
छोड़ कर
अपने चेहरे पर की
लकीरों को समझो ।।
तुम अकेली तनहा
आखिर कब तक
आखिर कब तक?
आखिर कब तक??
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