Saturday, December 28, 2019

कुछ धुंधली बातें ठहरी ठहरी सी

कुछ बातें ठहरी ठहरी सी 
कुछ उथली पुथली गठरी सी
कुछ सागर जैसी गहरी सी
कुछ बातें ठहरी ठहरी सी।


सब ठहर सा जैसे जाता था
जब तुमसे मिलना होता था
वो वक़्त न जाने कहाँ गया
जो हाथ में पकड़ा था सब कुछ
सब रेत की मानिंद फिसल गया
अब वक़्त भी ऐसे भागता है
जग सोता है दिल जागता है
अब सब कुछ धुंदला धुंधला सा 


तुम अब भी बिलकुल वैसी हो
मैं सोच-सोच मुस्काता हूँ
वो आंखें गहरी गहरी सी
कुछ बातें ठहरी ठहरी सी।


क्या सचमुच तुम वैसी ही हो?
वैसे ही गुमसुम रहती हो?
या अपने से ही बातें कर
दूर कहीं खो जाती हो?
भागते भागते रूकती हो
फिर रुकते रुकते भागती हो
जब तक मेरा चेहरा न दिखे
क्या अब भी उदास हो जाती हो?



वो आँखों में इक गीलापन
वो बातों में इक अल्हड़पन
ज्यूँ चंचल एक गिलहरी सी
कुछ बातें ठहरी ठहरी सी।




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