Monday, July 08, 2013

कविता: सरहद - २

मेरी छत  पर मैं उड़ाता पतंग
और तुम अपनी छत  पर
फासला कुछ ज्यादा नहीं है
तुम्हारे और मेरे घर के बीच
पर फिर भी इतना ज्यादा
की हम तुम कुछ कदम चल कर
इक दुसरे के घर जा नहीं सकते
क्यूंकि
मुद्दा एक सरहद का है
जो एक लकीर के ज़रिये
हमारे घरों के बीच
एक विशाल दीवार बना देती है
जो बनी है नफरत के मिटटी गारे से ।

कभी सोच कर देखा है किसी ने
मेरी और तुम्हारी पतंगें 
सब सरहदों, नफरतों, और कौमों
से आज़ाद हैं और निडर भी
ना ये आसमान में एक दुसरे को चूमने से
डरती हैं, न इन्हें किसी फौजी की गोली का डर है।

और हम तुम इसी बहाने एक दुसरे को छु लेते है
जब मेरी पतंग तुम्हारी छत पर तुम्हारे हाथों में
और कभी तुम्हारी पतंग कट कर मेरे हाथों में ।

ये हवाएं किस कदर कमज़ोर साबित कर देती हैं
इन मजबूत सरहदी लकीरों को
कौमों को
और नफरतों को।





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